नमस्कार मित्रो ,
जय श्री कृष्णा। हर हर महादेव।
दोस्तों हम बात कर रहे हे भगवान वेद व्यासजी की। हम उनके महान आदर्शों एवं विचारों और वचनों के बारे में बात कर रहे है। महर्षि वेद व्यास जब उनका जन्म हुआ तब से वह घोर तपस्या के लिए निकल गए थे। उसी कारण उनका शरीर काला पड़ था यानि वह श्याम वर्ण के हो गए थे। यही वजह है जिसके कारण वह कृष्ण द्वैपायन व्यास भी कहलाए। तो चलिए जानते है उनके वचनों के बारे में। पिछले आर्टिकल्स में हमने उनके द्वारा दिए गए ११ वचनों के बारे में जाना। अब आगे......................................
१२ जिस मनुष्य की मति दुर्भावना युक्त हो तथा जिसने अपनी इन्द्रियों को वश नहीं किया है वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता।
१३ मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है। संतोष में ही सुख है।
१४ दुःख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है , मन से दुखों की चिंता न करना।
१५ जो केवल दया से प्रेरित होकर सेवा करता है , उन्हें निःसंशय सुख की प्राप्ति होती है।
१६ अधिक बलवान तो वह है जिनके पास बुद्धिबल होता है।केवल शारीरिक बल होता है, वह वास्तविक बलवान नहीं है।
१७ जिसकी बुद्धि नष्ट हो गई हो , वह इन्सान सदा पाप का आचरण ही करता है। पुनः पुनः किया पुण्य बुद्धि की वृद्धि करता है।
१८ जो विपत्ति और आपत्ति की स्थिति में भी दुखी नहीं होता , बल्कि सावधान होकर उद्योग और परिश्रम करता है और समय आने पर दुःख भी सहन कर लेता है , उसके शत्रु पराजित ही है।
१९ जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है , उसने मानो सारे विश्व में विजय प्राप्त कर लिया।
२० संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है , जो मनुष्य की आशाओं और कामनाओं का पेट भर सके। मनुष्य की आशा समुद्र के भांति है।
२१ माता के रहते पुत्र को कभी चिंता नहीं होती , बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी माँ को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है , वह निर्धन होता हुआ भी अन्नपूर्णा के पास चला आता है।
२२ मन का दुःख मिट जाने पर शरीर का दुःख भी मिट जाता है।
२३ आशा ही दुःख की जननी है और निराशा ही परम सुख शांति प्रदान करने वाली है।
२४ सत्य से सूर्य तप्त है , सत्य से आग जलती है। सत्य से वायु बहती है , सब कुछ सत्य में ही स्थित है।
२५ जो मनुष्य सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले परमात्मा को देखता है वही सत्य को देखता है।
२६ जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत किया रखना चाहिए।
२७ स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते है।
२८ विद्या के समान कोई नेत्र नहीं।
२९ मनुष्य का जीवन तब सफल है जब वह उपकारी के उपकारों को कभी ना भूले। उसके उपकार से बढ़कर उपकार कर दे।
३० जैसे तेल समाप्त होते ही दीपक बुझ जाता है। उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर देह भी नष्ट हो जाता है।
धन्यवाद।
जय श्री कृष्ण। जय हिन्द।
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